हिन्दू धर्म भारत (India) का सर्वप्रमुख धर्म है। सनातन धर्म (हिन्दू धर्म) में पवित्र सोलह संस्कार (Sanatan Dharm Ke 16 Sanskar) संपन्न किए जाते हैं। हिंदू धर्म की विशालता एवं प्राचीनता के कारण ही उसे ‘सनातन धर्म’ भी कहा जाता है। प्राचीन काल में प्रत्येक कार्य संस्कार से आरम्भ होता था। उस समय संस्कारों की संख्या भी लगभग 40 थी। जैसे-जैसे समय बदलता गया तथा व्यस्तता बढती गई तो कुछ संस्कार स्वत: विलुप्त हो गये।
इस प्रकार समयानुसार संशोधित होकर संस्कारों की संख्या निर्धारित होती गई। गौतम स्मृति में चालीस प्रकार के संस्कारों का उल्लेख है। महर्षि अंगिरा ने इनका अंतर्भाव 25 संस्कारों में किया। व्यास स्मृति में सोलह संस्कारों का वर्णन हुआ है। हमारे धर्मशास्त्रों में भी मुख्य रूप से सोलह संस्कारों की व्याख्या की गई है। इनमें पहला गर्भाधान संस्कार और मृत्यु के उपरांत अंत्येष्टि अंतिम संस्कार है। गर्भाधान के बाद पुंसवन, सीमन्तोन्नयन, जातकर्म, नामकरण ये सभी संस्कार नवजात का दैवी जगत् से संबंध स्थापना के लिये किये जाते हैं।
नामकरण के बाद चूड़ाकर्म और यज्ञोपवीत संस्कार होता है। इसके बाद विवाह संस्कार होता है। यह गृहस्थ जीवन का सर्वाधिक महत्वपूर्ण संस्कार है। हिन्दू धर्म में स्त्री और पुरुष दोनों के लिये यह सबसे बडा संस्कार है, जो जन्म-जन्मान्तर का होता है।
Sanatan Dharm Ke 16 Sanskar in Hindi
विभिन्न धर्मग्रंथों में (16 Sanskar) संस्कारों के क्रम में थोडा-बहुत अन्तर है, लेकिन प्रचलित संस्कारों के क्रम में
(1).गर्भाधान
(2).पुंसवन
(3).सीमन्तोन्नयन
(4.)जातकर्म
(5).नामकरण
(6).निष्क्रमण
(7).अन्नप्राशन
(8).चूड़ाकर्म
(9).विद्यारंभ
(10).कर्णवेध
(11).यज्ञोपवीत
(12).वेदारम्भ
(13).केशान्त
(14).समावर्तन
(15).विवाह
(16).अन्त्येष्टि
सनातन धर्म के 16 Sanskar मान्य है।गर्भाधान से विद्यारंभ तक के संस्कारों को गर्भ संस्कार भी कहते हैं। इनमें पहले तीन (गर्भाधान, पुंसवन, सीमन्तोन्नयन) को अन्तर्गर्भ संस्कार तथा इसके बाद के छह संस्कारों को बहिर्गर्भ संस्कार कहते हैं। गर्भ संस्कार को दोष मार्जन अथवा शोधक संस्कार भी कहा जाता है। दोष मार्जन संस्कार का तात्पर्य यह है कि शिशु के पूर्व जन्मों से आये धर्म एवं कर्म से सम्बन्धित दोषों तथा गर्भ में आई विकृतियों के मार्जन के लिये संस्कार किये जाते हैं। बाद वाले छह संस्कारों को गुणाधान संस्कार कहा जाता है।
Sanatan Dharm Ke 16 Sanskar | सनातन धर्म के सोलह संस्कार
1.गर्भाधान संस्कार | Garbhadhaan Sanskar
गर्भाधान संस्कार महर्षि चरक ने कहा है कि मन का प्रसन्न और स्वस्थ रहना गर्भधारण के लिए आश्यक है इसलिए स्त्री एवं पुरुष को हमेशा उत्तम हमेशा भोजन करना चाहिए और हमेशा प्रसन्नचित्त रहना चाहिए। गर्भ की उत्पत्ति के समय स्त्री और पुरुष का मन , प्रसन्नता, उत्साह और स्वस्थ्यता से भरा होना चाहिए। उत्तम संतान प्राप्त करने के लिए सबसे पहले गर्भाधान-संस्कार करना होता है। माता-पिता के रज एवं वीर्य के संयोग से संतानोत्पत्ति होती है। यह संयोग ही गर्भाधान कहलाता है।
स्त्री और पुरुष के शारीरिक मिलन को गर्भाधान-संस्कार कहा जाता है। गर्भस्थापन के बाद अनेक प्रकार के प्राकृतिक दोषों के आक्रमण होते हैं, जिनसे बचने के लिए यह संस्कार किया जाता है। जिससे गर्भ सुरक्षित रहता है। विधिपूर्वक संस्कार से युक्त गर्भाधान से अच्छी और सुयोग्य संतान उत्पन्न होती है।
2. पुंसवन संस्कार Punsavan Sanskar
पुंसवन संस्कार 3 महीने के पश्चात इसलिए आयोजित किया जाता है क्योंकि गर्भ में 3 महीने के पश्चात गर्भस्थ शिशु का मस्तिष्क विकसित होने लगता है। इस समय पुंसवन संस्कार के द्वारा स्री के गर्भ में पल रहे शिशु के संस्कारों की नींव रखी जाती है। मान्यता के अनुसार शिशु गर्भ में सीखना शुरू कर देता है, इसका उदाहरण है अभिमन्यु जिसने अपनी माता द्रौपदी के गर्भ में ही चक्रव्यूह की शिक्षा प्राप्त कर ली थी।
3.सीमन्तोन्नयन संस्कार Simantonayan Sanskar
सीमंतोन्नायन संस्कार गर्भ के चौथे, छठवें और आठवें महीने में किया जाता है। इस समय गर्भ में पल रहा बच्चा सीखने के काबिल हो जाता है। उसमें अच्छा स्वभाव, अच्छे गुण, उत्तम बुद्धि और कर्म का ज्ञान आए, इसके लिए मां उसी प्रकार रहन-सहन , आचार-विचार और अच्छा व्यवहार करती है। इस दौरान प्रसन्नचित्त और शांत रहकर माता को अध्ययन करना चाहिए।
4.जातकर्म संस्कार Jatkarma Sanskar
बालक का जन्म होते ही जातकर्म संस्कार को करने से शिशु के कई प्रकार के दोष दूर होते हैं। जातकर्म संस्कार के अंतर्गत शिशु को शहद और घी चटाया जाता है साथ ही वैदिक मंत्रों का उच्चारण किया जाता है ताकि बच्चा स्वस्थ और दीर्घायु हो।
5. नामकरण संस्कार Naamkaran Sanskar
जातकर्म संस्कार के बाद नामकरण संस्कार किया जाता है। जैसे की इसके नाम से ही विदित होता है कि इसमें शिशु का नाम रखा जाता है। शिशु के जन्म के बाद 11वें दिन नामकरण संस्कार किया जाता है। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार बच्चे का नाम तय किया जाता है। बहुत से लोगों अपने शिशु का नाम कुछ भी रख देते हैं जो कि गलत है। उसकी मानसिकता और उसके भविष्य पर इसका असर पड़ता है। जैसे अच्छे कपड़े पहने से व्यक्तित्व में निखार आता है
उसी तरह अच्छा और सारगर्भित नाम रखने से संपूर्ण जीवन और व्यवहार पर उसका प्रभाव पड़ता है। ध्यान रखने की बात यह है कि बच्चे का नाम ऐसा रखें कि घर और बाहर उसे उसी नाम से पुकारा जाए।
6.निष्क्रमण संस्कार Nishkramana Sanskar
नामकरण संस्कार बाद जन्म के चौधे माह में निष्क्रमण संस्कार किया जाता है। निष्क्रमण का अर्थ होता है बाहर निकालना। हमारा शरीर पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश आदि से मिलकर बना है जिन्हें पंचभूत (पांच तत्व) कहा जाता है। इसलिए पिता इन देवताओं से बच्चे के कल्याण की प्रार्थना करते हैं। साथ ही कामना करते हैं कि बच्चा दीर्घायु रहे और स्वस्थ रहे।
7. अन्नप्राशन संस्कार Annprashan Sanskar
अन्नप्राशन संस्कार शिशु के दांत निकलने के समय अर्थात 6-7 महीने की उम्र में किया जाता है। इस संस्कार के बाद शिशु को अन्न खिलाने की शुरुआत हो जाती है। प्रारंभ में उत्तम प्रकार से बना अन्न जैसे खीर, चावल,खिचड़ी, आदि खिलाया जाता है।
8.चूडाकर्म/मुण्डन संस्कार Chaul Sanskar
जब सिर के बाल प्रथम बार उतारे जाते हैं, तब वह चूड़ाकर्म या मुण्डन संस्कार कहलाता है। जब बच्चे की आयु एक वर्ष हो जाती है तब या तीन वर्ष की आयु में या पांचवें या सातवें वर्ष की आयु में बच्चे के बाल उतारे जाते हैं। इस संस्कार से बच्चे का सिर मजबूत होता है तथा बुद्धि तेज होती है। साथ ही बच्चे के बालों में चिपके कीटाणु नष्ट होते हैं जिससे बच्चे को स्वास्थ्य लाभ प्राप्त होता है। मान्यता है गर्भ से बाहर आने के बाद बालक के सिर पर माता-पिता के दिए बाल ही रहते हैं। इन्हें काटने से शुद्धि होती है।
9.विद्यारंभ संस्कार Vidyarambh Sanskar
जब बालक- बालिका की आयु शिक्षा ग्रहण करने योग्य हो जाय, तब उसका विद्यारंभ संस्कार कराया जाता है। इसमें समारोह के माध्यम से जहाँ एक ओर बालक में अध्ययन का उत्साह पैदा किया जाता है, वही अभिभावकों, शिक्षकों को भी उनके इस पवित्र और महान दायित्व के प्रति जागरूक कराया जाता है कि बालक को अक्षर ज्ञान, विषयों के ज्ञान के साथ श्रेष्ठ जीवन के सूत्रों का भी बोध और अभ्यास कराते रहें।
कर्णवेध संस्कार का अर्थ होता है कान को छेदना। इसके 5 कारण हैं,
(I).आभूषण पहनने के लिए।
(II).कान छेदने से ज्योतिषानुसार राहु और केतु के बुरे प्रभाव बंद हो जाते हैं।
(III).इसे एक्यूपंक्चर होता जिससे मस्तिष्क तक जाने वाली नसों में रक्त का प्रवाह ठीक होने लगता है।
(IV).इससे श्रवण शक्ति बढ़ती है और कई रोगों की रोकथाम हो जाती है।
(V).इससे यौन इंद्रियां पुष्ट होती है।
11. यज्ञोपवीत/जनेऊ/उपनय संस्कार Upnayan Sanskar
यज्ञोपवित संस्कार को जनेऊ या उपनय संस्कार भी कहते हैं। प्रत्येक हिन्दू को यह संस्कार करना चाहिए। उप यानी पास और नयन यानी ले जाना। गुरु के पास ले जाने का अर्थ है उपनयन संस्कार। आज भी यह परंपरा है। जनेऊ यानि यज्ञोपवित में 3 सूत्र होते हैं। ये तीन देवता – ब्रह्मा, विष्णु और महेश के प्रतीक हैं। यज्ञोपवित संस्कार से बच्चे को बल, ऊर्जा और तेज प्राप्त होता है। साथ ही उसमें आध्यात्मिक भाव जागृत होता है।
12. वेदारम्भ संस्कार Vedarambha Sanskar
ज्ञानार्जन से सम्बन्धित है वेदारम्भ संस्कार । वेद का अर्थ होता है ज्ञान और वेदारम्भ संस्कार के माध्यम से बालक अब ज्ञान को अपने अन्दर समाविष्ट करना शुरू करे यही अभिप्राय है वेदारंभ संस्कार का। शास्त्रों में ज्ञान से बढ़कर दूसरा कोई प्रकाश नहीं समझा गया है। स्पष्ट है कि प्राचीन काल में यह संस्कार मनुष्य के जीवन में विशेष महत्व रखता था। यज्ञोपवीत के बाद बालकों को वेदों का अध्ययन एवं विशिष्ट ज्ञान से परिचित होने के लिये योग्य आचार्यो के पास गुरुकुलों में भेजा जाता था।
वेदारम्भ से पहले आचार्य अपने शिष्यों को ब्रह्मचर्य व्रत कापालन करने एवं संयमित जीवन जीने की प्रतिज्ञा कराते थे तथा उसकी परीक्षा लेने के बाद ही वेदाध्ययन कराते थे। असंयमित जीवन जीने वाले वेदाध्ययन के अधिकारी नहीं माने जाते थे। हमारे चारों वेद ज्ञान के अक्षुण्ण भंडार हैं।
13.केशांत संस्कार Keshani Sanskar
केशांत का अर्थ है बालों का अंत करना, उन्हें समाप्त करना। एक मनुष्य अपनी आयु के आठवें से बारहवें वर्ष के बीच यज्ञोपवित संस्कार करके गुरुकुल में प्रवेश करता है जिसके बाद उसे एक निश्चित आयु तक (अधिकतम पच्चीस वर्ष) शिक्षा प्राप्त करनी होती है। इस समय तक उसे गुरुकुल के नियमों का पालन करते हुए अपने बालों तथा दाढ़ी कटवाने की मनाही होती है किंतु जब उसकी शिक्षा पूर्ण हो जाती है तब उसे वापस अपने घर भेज दिया जाता है।
इससे पहले उसका केशांत संस्कार इसलिये किया जाता है ताकि अब उसे यह अहसास दिलवाया जा सके कि अब उसे गुरुकुल के नियमों को त्यागकर समाज के नियमों में जाना है तथा उनका पालन करना है। साथ ही गुरुकुल में मिली शिक्षा के द्वारा बाहर कार्य करना है। एक तरह से यह संस्कार उसकी शुद्धिकरण करके उसे पुनः घर लौटाने के उद्देश्य से किया जाता है।
14. समावर्तन संस्कार Samavartan Sanskar
समावर्तन संस्कार अर्थ है फिर से लौटना। आश्रम या गुरुकुल से शिक्षा प्राप्ति के बाद व्यक्ति को फिर से समाज में लाने के लिए यह संस्कार किया जाता था। इसका आशय है ब्रह्मचारी व्यक्ति को मनोवैज्ञानिक रूप से जीवन के संघर्षों के लिए तैयार किया जाना।
15. विवाह संस्कार Vivah Sanskar
उचित उम्र में विवाह करना जरूरी है। विवाह संस्कार सर्वाधिक महत्वपूर्ण संस्कार माना जाता है। इसके अंतर्गत वर और वधू दोनों साथ रहकर धर्म के पालन का संकल्प लेते हुए विवाह करते हैं। विवाह के द्वारा सृष्टि के विकास में योगदान ही नहीं दिया जाता बल्कि व्यक्ति के आध्यात्मिक और मानसिक विकास के लिए भी यह जरूरी है। इसी संस्कार से व्यक्ति पितृऋण से भी मुक्त होता है।
16. अन्त्येष्टि संस्कार/श्राद्ध संस्कार Antyesthi Sanskar
अंत्येष्टि संस्कार इसका अर्थ है अंतिम संस्कार। अन्त्येष्टि को अंतिम अथवा अग्नि परिग्रह संस्कार भी कहा जाता है। आत्मा में अग्नि का आधान करना ही अग्नि परिग्रह है। धर्म शास्त्रों की मान्यता है कि मृत शरीर की विधिवत् क्रिया करने से जीव की अतृप्त वासनायें शान्त हो जाती हैं। हमारे शास्त्रों में बहुत ही सहज ढंग से इहलोक और परलोक की परिकल्पना की गयी है। जब तक जीव शरीर धारण कर इहलोक में निवास करता है
तो वह विभिन्न कर्मो से बंधा रहता है। प्राण छूटने पर वह इस लोक को छोड़ देता है। उसके बाद की परिकल्पना में विभिन्न लोकों के अलावा मोक्ष या निर्वाण है। मनुष्य अपने कर्मो के अनुसार फल भोगता है। इसी परिकल्पना के तहत मृत देह की विधिवत क्रिया होती है। जब तक से जयादा शरीर न जल जाए तब तक सभी को वही रहना चाहिए
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